Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


रंगभूमि अध्याय 7

संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था और प्राणपण से समय-चक्र को पलट देना चाहता था। बादल भी थे, बूँदें भी थीं, ठंडी हवा भी थी, कुहरा भी था। इतनी विभिन्न शक्तियों के मुकाबिले में ऋतुराज की एक न चलती। लोग लिहाफ में यों मुँह छिपाए हुए थे, जैसे चूहे बिलों में से झाँकते हैं। दूकानदार अंगीठियों के सामने, बैठे हाथ सेंकते थे। पैसों के सौदे नहीं, मुरौवत के सौदे बेचते थे। राह चलते लोग अलाव पर यों गिरते थे, मानो दीपक पर पतंगे गिरते हों। बड़े घरों की स्त्रियाँ मनाती थीं-मिसराइन न आए, तो आज भोजन बनाएँ, चूल्हे के सामने बैठने का अवसर मिले। चाय की दूकानों पर जमघट रहता था। ठाकुरदीन के पान छबड़ी में पड़े सड़ रहे थे; पर उसकी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें फेरे! सूरदास अपनी जगह पर तो आ बैठा था; पर इधर-उधर से सूखी टहनियाँ बटोरकर जला ली थीं और हाथ सेंक रहा था। सवारियाँ आज कहाँ! हाँ, कोई इक्का-दुक्का मुसाफिर निकल जाता था, तो बैठे-बैठे उसका कल्याण मना लेता था। जब से सैयद ताहिर अली ने उसे धमकियाँ दी थीं, जमीन के निकल जाने की शंका उसके हृदय पर छाई रहती थी। सोचता-क्या इसी दिन के लिए, मैंने इस जमीन का इतना जतन किया था? मेरे दिन सदा यों ही थोड़े ही रहेंगे, कभी तो लच्छमी प्रसन्न होंगी! अंधों की आँखें न खुलें; पर भाग खुल सकता है। कौन जाने, कोई दानी मिल जाए, या मेरे ही हाथ में धीरे-धीरे कुछ रुपये इकट्ठे हो जाएँ, बनते देर नहीं लगती। यही अभिलाषा थी कि यहाँ एक कुआँ और एक छोटा-सा मंदिर बनवा देता, मरने के पीछे अपनी कुछ निशानी रहती। नहीं तो कौन जानेगा कि अंधा कौन था। पिसनहारी ने कुआँ खुदवाया था, आज तक उसका नाम चला जाता है। झक्कड़ साईं ने बावली बनवाई थी, आज तक झक्कड़ की बावली मशहूर है। जमीन निकल गई, तो नाम डूब जाएगा। कुछ रुपये मिले भी, तो किस काम के?

नायकराम उसे ढाढ़स देता रहता था-तुम कुछ चिंता मत करो, कौन माँ का बेटा है, जो मेरे रहते तुम्हारी जमीन निकाल ले। लहू की नदी बहा दूँगा। उस किरंटे की क्या मजाल, गोदाम में आग लगा दूँगा, इधर का रास्ता छुड़ा दूँगा। वह है किस गुमान में! बस तुम हामी न भरना। किंतु इन शब्दों से जो तस्कीन होती थी, वह भैरों और जगधर की ईर्ष्‍यापूर्ण वितंडाओं से मिट जाती थी, और वह एक लम्बी साँस खींचकर रह जाता था।
वह इन्हीं विचारों में मग्न था कि नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे, एक अंगोछा कंधो पर डाले, पान के बीड़े मुँह में भरे, आकर खड़ा हो गया और बोला-सूरदास, बैठे टापते ही रहोगे? साँझ हो गई, हवा खानेवाले अब इस ठंड में न निकलेंगे। खाने-भर को मिल गया कि नहीं?
सूरदास-कहाँ महाराज, आज तो एक भागवान से भी भेंट न हुई।
नायकराम-जो भाग्य में था, मिल गया। चलो, घर चलें। बहुत ठंड लगती हो, तो मेरा यह अंगोछा कंधो पर डाल लो। मैं तो इधर आया था कि कहीं साहब मिल जाएँ, तो दो-दो बातें कर लूँ। फिर एक बार उनकी और हमारी भी हो जाए।
सूरदास चलने को उठा ही था कि सहसा एक गाड़ी की आहट मिली। रुक गया। आस बँधी। एक क्षण में फिटन आ पहुँची। सूरदास ने आगे बढ़कर कहा-दाता, भगवान् तुम्हारा कल्यान करें, अंधे की खबर लीजिए।
फिटन रुक गई, और चतारी के राजा साहब उतर पड़े। नायकराम उनका पंडा था। साल में दो-चार सौ रुपये उनकी रियासत से पाता था। उन्हें आशीर्वाद देकर बोला-सरकार का इधर कैसे आना हुआ? आज तो बड़ी ठंड है।
राजा साहब-यही सूरदास है, जिसकी जमीन आगे पड़ती है? आओ, तुम दोनों आदमी मेरे साथ बैठ जाओ, मैं जरा उस जमीन को देखना चाहता हूँ।
नायकराम-सरकार चलें, हम दोनों पीछे-पीछे आते हैं।
राजा साहब-अजी आकर बैठ जाओ, तुम्हें आने में देर होगी, और मैंने अभी संध्‍या नहीं की है।
सूरदास-पंडाजी, तुम बैठ जाओ, मैं दौड़ता हुआ चलूँगा, गाड़ी के साथ-ही-साथ पहुँचूँगा।
राजा साहब-नहीं-नहीं, तुम्हारे बैठने में कोई हरज नहीं है, तुम इस समय भिखारी सूरदास नहीं, जमींदार सूरदास हो।
नायकराम-बैठो सूरे, बैठो। हमारे सरकार साक्षात् देवरूप हैं।
सूरदास-पंडाजी, मैं...
राजा साहब-पंडाजी, तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दो, यों न बैठेंगे।
नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दिया, आप भी बैठे, और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था। ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूँ। तीन-चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई और राजा साहब उतर पड़े, तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी क्योंकर आ गए।
राजा साहब-जमीन तो बड़े मौके की है।
सूरदास-सरकार, बाप-दादों की निसानी है।
सूरदास के मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं-क्या साहब ने इनको यह जमीन देखने के लिए भेजा है? सुना है, यह बड़े धर्मात्मा पुरुष हैं। तो इन्होंने साहब को समझा क्यों न दिया? बड़े आदमी सब एक होते हैं, चाहे हिंदू हों या तुर्क; तभी तो मेरा इतना आदर कर रहे हैं, जैसे बकरे की गरदन काटने से पहले उसे भर-पेट दाना खिला देते हैं। लेकिन मैं इनकी बातों में आनेवाला नहीं हूँ।
राजा साहब-असामियों के साथ बंदोबस्त हैं?
नायकराम-नहीं सरकार, ऐसे ही परती पड़ी रहती है, सारे मुहल्ले की गऊएं यहीं चरने आती हैं। उठा दी जाए, तो 200 रुपये से कम नफ़ा न हो, पर यह कहता है, जब भगवान् मुझे यों ही खाने-भर को देते हैं, तो इसे क्यों उठाऊँ।
राजा साहब-अच्छा, तो सूरदास दान लेता ही नहीं, देता भी है। ऐसे प्राणियों के दर्शन ही से पुण्य होता है।
नायकराम की निगाह में सूरदास का इतना आदर कभी न हुआ था। बोले-हुजूर, उस जन्म का कोई बड़ा भारी महात्मा है।
राजा साहब-उस जन्म का नहीं, इस जन्म का महात्मा है।
सच्चा दानी प्रसिध्दि का अभिलाषी नहीं होता। सूरदास को अपने त्याग और दान के महत्व का ज्ञान ही न था। शायद होता, तो स्वभाव में इतनी सरल दीनता न रहती, अपनी प्रशंसा कानों को मधुर लगती है। सभ्य दृष्टि में दान का यही सर्वोत्ताम पुरस्कार है। सूरदास का दान पृथ्वी या आकाश का दान था, जिसे स्तुति या कीर्ति की चिंता नहीं होती। उसे राजा साहब की उदारता में कपट की गंध आ रही थी। वह यह जानने के लिए विकल हो रहा था कि राजा साहब का इन बातों से अभिप्राय क्या है।
नायकराम राजा साहब को खुश करने के लिए सूरदास का गुणानुवाद करने लगे-धर्मावतार, इतने पर भी इन्हें चैन नहीं है। यहाँ, धर्मशाला, मंदिर और कुआँ बनवाने का विचार कर रहे हैं।
राजा साहब-वाह, तब तो बात ही बन गई। क्यों सूरदास, तुम इस जमीन में से 9 बीघे मिस्टर जॉन सेवक को दे दो। उनसे जो रुपये मिलें, उन्हें धर्म-कार्य में लगा दो। इस तरह तुम्हारी अभिलाषा भी पूरी हो जाएगी और काम भी निकल जाएगा। दूसरों से इतने अच्छे दाम न मिलेंगे। बोलो, कितने रुपये दिला दूँ?
नायकराम सूरदास को मौन देखकर डरे कि कहीं यह इनकार कर बैठा, तो मेरी बात गई! बोले-सूरे, हमारे मालिक को जानते हो न, चतारी के महाराज हैं, इसी दरबार से हमारी परवरिस होती है। मिनिसपलटी के सबसे बड़े हाकिम हैं। आपके हुक्म बिना कोई अपने द्वार पर खूँटा भी नहीं गाड़ सकता। चाहें, तो सब इक्केवालों को पकड़वा लें, सारे शहर का पानी बंद कर दें।
सूरदास-जब आपका इतना बड़ा अखतियार है, तो साहब को कोई दूसरी जमीन क्यों नहीं दिला देते?
राजा साहब-ऐसे अच्छे मौके पर शहर में दूसरी जमीन मिलनी मुश्किल है। लेकिन तुम्हें इसके देने में क्या आपत्ति है? इस तरह न जाने कितने दिनों में तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। यह तो बहुत अच्छा अवसर हाथ आया, रुपये लेकर धर्म-कार्य में लगा दो।

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